वैशाख कृष्ण पक्ष की वरुथिनी एकादशी: सौभाग्य और आशीर्वाद का अद्भुत पर्व

वरूथिनी एकादशी: जानिए इस पावन दिन के बारे में सबकुछ

वरुथिनी एकादशी:
वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को वरूथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह एकादशी आशीर्वाद और सौभाग्य प्रदान करने वाली मानी जाती है। इस व्रत को करना सुख-समृद्धि का प्रतीक है।

व्रत की महत्त्वपूर्ण विधि:

इस दिन भक्तिभाव से भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए। व्रती को चाहिए कि वह दशमी को हविष्यान्न का एक बार भोजन करे। व्रत रहने वाले के लिए कुछ वस्तुओं का पूर्णतया निषेध है, अत: इनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य:

इस एकादशी का फल सभी एकादशियों से बढ़कर है। इस दिन जो पूर्ण उपवास रखते हैं, 10 हज़ार वर्षों की तपस्या के बराबर फल प्राप्त होता है।

वरूथिनी एकादशी कथा और महत्वपूर्ण जानकारी:

एकादशी का अद्भुत पर्व
एकादशी का अद्भुत पर्व

प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसे भगवान विष्णु के आज्ञा से वरुथिनी एकादशी का व्रत रखने का उपदेश मिला।
वरुथिनी एकादशी का उत्सव धार्मिकता और समृद्धि के प्रतीक के रूप में नहीं ही केवल एक परंपरागत महत्व का प्रतीक है, बल्कि एक सात्विक जीवनशैली को बढ़ावा देता है। इसे नहीं सिर्फ विश्वास का प्रतीक माना जाता है, बल्कि इसके पीछे छुपी कथा और उपदेश हमें धार्मिक नैतिकता की ओर प्रेरित करते हैं।

वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को वरूथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह एकादशी आशीर्वाद और सौभाग्य प्रदान करने वाली मानी जाती है। इस व्रत को करना सुख-समृद्धि का प्रतीक है। इस व्रत को करने से सभी प्रकार के पाप और कष्ट दूर हो जाते हैं, असीम शक्ति प्राप्त होती है 

और स्वर्ग आदि श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति होती है। वरुथिनी एकादशी का व्रत किसी योग्य ब्राह्मण को दान देने, लाखों वर्षों तक ध्यान करने, घोर तपस्या करने और यहां तक कि विवाह में कन्यादान करने के कार्य से भी श्रेष्ठ माना जाता है। 

हिंदू वर्ष की तीसरी एकादशी (वैशाख कृष्ण एकादशी) को आने वाली इस एकादशी को वरुथिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। ‘वरुथिनी’ शब्द संस्कृत के ‘वरुथिन’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है रक्षक, ढाल या रक्षक। वैशाख कृष्ण एकादशी, जिसे वरुथिनी एकादशी भी कहा जाता है, का व्रत भक्तों की हर बाधा से रक्षा करता है, इसीलिए इसे वरुथिनी एकादशी कहा जाता है।

वरूथिनी एकादशी व्रत करने की विधि

वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को वरूथिनी एकादशी
'वरुथिनी' शब्द संस्कृत के 'वरुथिन' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है रक्षक, ढाल या रक्षक।

इस दिन भक्तिभाव से भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिए। इस व्रत को करने से भगवान मधुसूदन की प्रसन्नता प्राप्त होती हैं और सम्पूर्ण पापों का नाश होता है व सुख-सौभाग्य की वृद्धि होती है तथा भगवान का चरणामृत ग्रहण करने से आत्मशुद्धि होती है। व्रती को चाहिए कि वह दशमी को अर्थात व्रत रखने से एक दिन पूर्व हविष्यान्न का एक बार भोजन करे। इस व्रत में कुछ वस्तुओं का पूर्णतया निषेध है, 

अत: इनका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। व्रत रहने वाले के लिए उस दिन पान खाना, दातून करना, परनिन्दा, क्रोध करना, असत्य बोलना वर्जित है। इस दिन जुआ और निद्रा का भी त्याग करें। इस व्रत में तेलयुक्त भोजन नहीं करना चाहिए। रात्रि में भगवान का नाम स्मरण करते हुए जागरण करें और द्वादशी को माँस, कांस्यादि का परित्याग करके व्रत का पालन करें।

वरूथिनी एकादशी करने का महत्त्व

ऐसी मान्यता है कि इस दिन का फल सभी एकादशियों से बढ़कर है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि अन्न दान और कन्या दान का महत्त्व हर दान से ज़्यादा है और वरुथिनी एकादशी का व्रत रखने वाले को इन दोनों के योग के बराबर फल प्राप्त होता है। इस दिन जो पूर्ण उपवास रखते हैं, 

10 हज़ार वर्षों की तपस्या के बराबर फल प्राप्त होता है। उसके सारे पाप धुल जाते हैं। जीवन सुख-सौभाग्य से भर जाता है। मनुष्य को भौतिक सुख तो प्राप्त होते ही हैं, मृत्यु के बाद उसे मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को करने वाले सभी लोकों में श्रेष्ठ बैकुण्ठ लोक में जाते हैं। पुष्टिमार्गी वैष्णवों के लिए इस एकादशी का बहुत महत्त्व है। यह महाप्रभु वल्लभाचार्य की जयन्ती है।

वरूथिनी एकादशी कथा जो आपका जानना चाहिए.

God Vishnu
God Vishnu एकादशी का अद्भुत पर्व

प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा राज्य करता था। वह अत्यन्त दानशील तथा तपस्वी था। एक दिन जब वह जंगल में तपस्या कर रहा था, तभी न जाने कहाँ से एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा पूर्ववत अपनी तपस्या में लीन रहा। कुछ देर बाद पैर चबाते-चबाते भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया। राजा बहुत घबराया, मगर तापस धर्म अनुकूल उसने क्रोध और हिंसा न करके भगवान विष्णु से प्रार्थना की, करुण भाव से भगवान विष्णु को पुकारा। उसकी पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान श्री विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने चक्र से भालू को मार डाला।

राजा पहले ही भालू के पैर खा चुका था। उन्हें दुःखी देखकर भगवान विष्णु ने कहा, हे प्रिये! शोक मत करो। तुम मथुरा जाओ और वरुथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरी वराह अवतार मूर्ति की पूजा करो। उसके प्रभाव से पुन: सुदृढ़ अंगों वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था।’ भगवान की आज्ञा मान राजा ने मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक इस व्रत को किया। इसके प्रभाव से वह शीघ्र ही पुन: सुन्दर और सम्पूर्ण अंगों वाला हो गया।

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