भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने कई बार अहंकार (अहंता) के बारे में बताया हैं.

भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने कई बार अहंकार (अहंता)

भगवान कृष्ण
भगवान कृष्ण अहंकार और आत्म-पहचान

भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने कई बार अहंकार (अहंता) और आत्मविश्वास (स्व-आत्मा पर विश्वास) के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है। आत्मविश्वास हमारे व्यक्तिगत और आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक है, जबकि अहंकार हमारे विनाश का कारण बन सकता है।
भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने अहंकार और आत्मविश्वास के बीच का अंतर कई बार समझाया है। आत्मविश्वास हमारे व्यक्तिगत और आध्यात्मिक विकास के लिए जरूरी है।
यह हमें अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने और जीवन में सही दिशा में आगे बढ़ने में मदद करता है। आत्मविश्वास हमें हमारे अंदर की शक्ति और क्षमता पर भरोसा करने की प्रेरणा देता है।
वहीं, अहंकार हमें गलत रास्ते पर ले जा सकता है। 

अहंकार का मतलब है, खुद को दूसरों से बेहतर समझना और अपने महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर देखना। यह हमारे विनाश का कारण बन सकता है क्योंकि यह हमें वास्तविकता से दूर कर देता है। अहंकार की वजह से हम दूसरों की भावनाओं और जरूरतों को नहीं समझ पाते और यह हमारे रिश्तों में दरार डाल सकता है।
श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में यह भी बताया है कि आत्मविश्वास और अहंकार के बीच संतुलन बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। आत्मविश्वास हमें प्रगति की ओर ले जाता है, जबकि अहंकार हमें पीछे खींचता है। इसलिए, हमें अपने अंदर आत्मविश्वास को विकसित करना चाहिए और अहंकार से दूर रहना चाहिए। यह संतुलन हमें सही दिशा में मार्गदर्शन करेगा और हमारे जीवन को सफल और संतुलित बनाएगा।

भगवद्गीता के अनुसार अध्याय 16, श्लोक 4:

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्।।”

अनुवाद:
“हे पार्थ (अर्जुन), दंभ, घमंड, अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान ये आसुरी सम्पत्ति के लक्षण हैं।”

भगवद्गीता के अनुसार अध्याय 2, श्लोक 47:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।”

अनुवाद:
“तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तुम कर्मफल की इच्छा में न फँसो और न ही कर्म न करने में आसक्त हो।”
इन श्लोकों में श्री कृष्ण ने यह बताया है कि अहंकार और दंभ जैसी भावनाएँ आत्मा के विकास के लिए हानिकारक हैं। जबकि सही दृष्टिकोण और आत्मविश्वास व्यक्ति को सही दिशा में आगे बढ़ाते हैं।
इस विचार का सार यह है कि आत्मविश्वास और अहंकार के बीच एक स्पष्ट अंतर है:
आत्मविश्वास: “मैं श्रेष्ठ हूँ” का मतलब है कि व्यक्ति को अपने आप पर विश्वास है और वह अपने कौशल और क्षमताओं को समझता है।
अहंकार: “सिर्फ मैं ही श्रेष्ठ हूँ” का मतलब है कि व्यक्ति खुद को दूसरों से बेहतर मानता है और उसमें घमंड की भावना होती है।
इसलिए, हमें आत्मविश्वासी होना चाहिए लेकिन अहंकारी नहीं। आत्मविश्वास हमें सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ाता है, जबकि अहंकार हमारे विनाश का कारण बनता है।

भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने सच्चे प्रेम, भक्ति और निःस्वार्थता.

श्रीकृष्ण ने कई बार अहंकार (अहंता)

भगवद्गीता में, श्रीकृष्ण ने सच्चे प्रेम, भक्ति और निःस्वार्थता पर जोर दिया है। प्रेम जो स्वार्थ पर आधारित होता है, वह स्थायी नहीं होता और जल्द ही समाप्त हो जाता है। यहाँ कुछ श्लोक हैं जो इस विचार को स्पष्ट करते हैं:

अध्याय 2, श्लोक 62-63:


ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।”
“क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।”

अनुवाद:
“विषयों का ध्यान करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से सम्मोह (मूढ़भाव) उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति (स्मरणशक्ति) में भ्रम हो जाता है, स्मृति भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि के नाश से वह मनुष्य पतित हो जाता है।”
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि जब हम स्वार्थपूर्ण इच्छाओं और लालसाओं का पालन करते हैं, तो वे हमें नाश की ओर ले जाती हैं। सच्चा प्रेम निस्वार्थ और स्थायी होता है, जबकि लोभ क्षणिक और विनाशकारी होता है।
अध्याय 12, श्लोक 13-14:

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।”
“संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।”

अनुवाद:
“जो सब प्राणियों का द्वेष्टा नहीं है, जो सबका मित्र और करुणाशील है, जो ममता और अहंकार से रहित है, जो सुख-दुःख में सम है और क्षमाशील है।”
“जो सदा संतुष्ट है, योग में स्थिर है, आत्मसंयमी है और दृढ़ निश्चय वाला है, जिसने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पित कर रखा है, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है।”
इस श्लोक में श्री कृष्ण सच्चे प्रेम की विशेषताओं का वर्णन करते हैं, जिसमें निःस्वार्थता, करुणा, और स्थिरता प्रमुख हैं।
इस प्रकार, श्री कृष्ण के इस संदेश का सार यह है कि सच्चा प्रेम निःस्वार्थ, स्थायी और दृढ़ होता है, जबकि जो प्रेम स्वार्थ और लोभ पर आधारित होता है, वह क्षणिक और विनाशकारी होता है। हमें अपने जीवन में सच्चे प्रेम की खोज करनी चाहिए और लोभ से बचना चाहिए।

भगवान के नाम की शक्ति

श्रीकृष्ण ने सच्चे प्रेम, भक्ति और निःस्वार्थता.

नाम” भगवान का नाम तीनों लोकों में एकमात्र सार पदार्थ है।इसलिए हम मानव को रात-दिन भगवान का नाम सुमिरन करना चाहिए।’भगवान का नाम’ का सुमिरन इस प्रकार करना चाहिए, कि जीव सुमिरन करते हुए

 “भगवान का नाम” का रुप हो जाए और उसके अंदर रोम-रोम में नाम का रस समा जाए।’भगवान का नाम’ सच्चा धन है! नौ निधियां और अठारह सिद्धियां ‘नाम’ में शामिल हैं!’नाम’ सब इच्छाएं पूरी करने वाली चिंतामणि है।पूर्ण संतों से प्राप्त होने वाला सच्चा ‘नाम’ सृष्टि के कण कण में रमा हुआ है। इसलिए संतजन इसको ‘राम-नाम’ कहते हैं।सारा संसार चिंता की चिता में जल रहा है।केवल पूर्ण संत ही ‘नाम’ के सहारे इस विकराल अग्नि से बचते हैं। भगवान से भक्ति का एकमात्र आधार है भगवान से कोई न कोई सबंध बनाकर भक्ति करना,चूंकि संसार के नश्वर सबंध से वैराग्य तभी हो सकता है जब जीव का सबंध किसी शाश्वत से बन जाए,अर्थात परमात्मा से बन जाए.

बिना इसके भक्ति की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती. चिंतन कर ले मना
जब तें प्रभुहिं नवायो माथ
तव तें सुखही में सुख दीनों लीनों गहि हरि हाथ

श्री बिहारिन देव जू की वाणी
जो भी व्यक्ति सच्चे हृदय से एक बार श्रीबिहारीजी महाराज की शरण में आ जाता है, उसकी भविष्य की सारी जिम्मेदारी ये अपने ऊपर ले लेते हैं और उसका हाथ पकड़ कर, सुख ही सुख [रस] बरसाते हैं।

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